काफी सारे विडियो हैं...दो-तीन पोस्ट में मिला कर डाला जा रहा है...
यहाँ केवल कवि गोष्ठी के विडियो हैं ....
मंगलेश डबराल, शोभा सिंह, विनोद कुमार शुक्ल, प्रोफ्फेस्सर राजेंद्र कुमार, नाबरून भट्टाचार्य की कवितायें....
अन्धेरे की तड़प और उजाले का ख्वाब
चंद्रभूषण का कविता पाठ.......
जिस ट्रेन का इंतजार आप कर रहे हैं/ वह रास्ता बदलकर कहीं और जा चुकी है......./ सोच कर देखिए जरा/ ज्यादा दुखदायी यह रतजगा है/ या कई रात जगाने वाली पांच मिनट की/ वह नींद/ और वह भी छोड़िए/ इसका क्या करें कि टेªेनें ही ट्रेनें, वक्त ही वक्त/ मगर न जाने को कोई जगह है न रुकने की कोई वजह ;स्टेशन पर रातद्ध
आखिर सुविधाओं की होड़ वाले इस दौर में ऐसा क्या है जिसके छूट जाने की पीड़ा कभी पीछा नहीं छोड़ती और आदमी अकेला होता चला जाता है, निरर्थकता उस पर हावी होती चली जाती है। कविता में ट्रेन तो एक ऐसा रूपक था जो अपने सारे श्रोताओं में एक-ंसमान कसक का अहसास छोड़ता चला गया। श्रोताओं की ओर से इन पंक्तियों को सुनाने की दुबारा पफरमाइश हुई।
सी-10, नोएडा सेक्टर 15 में 11 जुलाई ;रविवारद्ध को आयोजित एक अनौपचारिक अंतरंग गोष्ठी में कवि-पत्राकार चंद्रभूषण की कविताओं को सुनना एक तरह से विडंबनाओं, घटियापन, पाखंड, मौकापरस्ती से भरे मध्यवर्गीय समाज में किसी संवेदनशील और ईमानदार मनुष्य के दुःस्वप्न, उदासी, अकेलापन, व्यथा, व्यंग्य और क्षोभ को सुनना था। एक बेहतर समाज और दुनिया चाहने वाले की चेतना पर बदतर दुनिया से होने वाले सायास-ंअनायास मुठभेड़ों और टकरावों से कैसे-ंकैसे विचारों की छाप निर्मित होती है, चंद्रभूषण की कविताओं में यह सब कुछ महसूस हुआ।
बेशक जमाना तो घटिया है और इस घटियापन से कवि को अलग रखने का कोई घेरा है नहीं, ऐसे में श्रोताओं के लिए यह महसूस करना दिलचस्प था कि चंद्रभूषण के कवि ने अपने लिए कौन-ंसा रास्ता चुना है। इस ‘दुविधा’ वाली राह से आगे बढ़ते हुए, कवि ने ‘पैसे का क्या है’ कविता के जरिए स्पष्ट रूप से जैसे अपने जमाने की नियति को तय कर दिया-
जब यार-ंदोस्त होते हैं, पैसा नहीं होता
जब दिल लगता है तो पैसा नहीं होता
जब खुद में खोए रहो तो भी वो नहीं होता
पिफर पीछे पड़ो उसके
तो उठ-उठ कर सब जाने लगते हैं
पहले दृश्य, पिफर रिश्ते, पिफर एहसास
पिफर थक कर तुम खुद भी चले जाते हो
दूर तक कहीं जब कुछ नहीं होता
तो पैसा होता है
पैसे का क्या है
वो तो....
वो तो....
जिस वक्त व्यावहारिक दुनिया में पैसे को ही मुक्तिदाता समझा जा रहा हो, व्यक्ति-ंवातंत्रय के तर्क उसी के भीतर से निकलते हों और उसी के द्वारा बख्सी गई आजादी और सुख के भ्रम में लोग डूब-उतरा रहे हों और अपने अकेलपन और असुरक्षा की असली वजह उन्हें समझ में न आ रही हो, उस वक्त इस कविता को सुनना मानो अत्यंत सहज अंदाज़ में एक गंभीर चेतावनी को सुनना था। इसी पैसे और पैसे के बल पर हासिल सुविधाओं और श्रेष्ठता के मिथ्या होड़ में गले तक डूबी- दंभ, समझौतों, मौकापरस्ती, पाखंड, बेईमानी से लैस नितांत स्वार्थी और वैचारिक तौर पर उच्छृखंल आवाजें जहां परिदृश्य पर छाई हुई हों, वहां गहरी संवेदना से युक्त और हर छोटे-बड़े अहसास को आलोचनात्मक दृष्टि से देखते हुए बड़े कन्विसिंग अंदाज में किसी वैचारिक सूत्रा या निष्कर्ष तक ले जाने वाली चंद्रभूषण की कविताएं पाठकों और श्रोताओं के मन पर गहरा असर छोड़ गईं।amp;एक ऐसे माहौल में किसी को रहना पड़े जिसे वह नापसंद करता है तो उसे दुस्वप्न क्यों न आएंगे? ‘रात में रेल’ कविता में भी दुःस्वप्न है। रेल जैसे जिंदगी का रूपक है यहां भी- रात में रेल चलती है/ रेल में रात चलती है। दरअसल हर दुःस्वप्न का अपना यथार्थ होता है, प्रतीकात्मक अर्थ होते हैं, उसके गहरे सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ होते हैं। उसमें व्यक्ति का अपना वैचारिक संघर्ष भी होता है, इस कविता में भी यही महसूस होता है कि जिसे मूल्यवान समझा जा रहा है, जिसे सुंदर समझा जा रहा है वह भ्रम है। इसे सुनते हुए पिफर पैसे वाली कविता मानो नए संदर्भ में उपस्थित हुई,
मौलिक होने की ज़िद...!
जन संस्क्रिति मंच की गीत नाट्य इकाई 'हिरावल',पटना के गीतों की रेकोर्डिंग आपको सुनाते हैं.
'हिरावल' के बारे में जो लोग जानते हैं, वे हिरावल द्वारा तैयार गीतों की ताजगी और तेवर के मुरीद हुए बिना नहीं रहते.
'हिरावल' अपने नाटकों और गीतों के माध्यम से बिहार के क्रान्तिकारी संघर्षों में कन्धे से कन्धा मिला कर लड़ने के साथ-साथ नये प्रयोगों के लिये भी जाना जाता है... चलिये कुछ नया- सा सुना जाये...
# 'मुक्तिबोध' की लम्बी कविता 'अन्धेरे में' का एक हिस्सा :
# 'कबीर' की रचना ' हमन है इश्क मस्ताना' :
# 'इंतसाब' जिसे लिखा है 'फ़ैज़ अहमद 'फ़ैज़' ने और जिसे
पहले भी कई व में कई मशहूर कलाकारों ने अपनी आवाज़ दी:
# फ़ैज़ की एक और रचना ' कुत्ते' :
# 'निराला' की एक रचना ' गहन है यह अन्धकारा' :
# समकालीन कवि वीरेन डंगवाल की कविता ' हमारा समाज' :
सभी गीतों में संगीत दिया है संतोष झा ने और गाया है संतोष झा और हिरावल के अन्य साथियों सुमन, समता, राजन, रोहित, बन्टू, विस्मोय और अन्कुर ने.
आगे की पोस्ट में 'हिरावल' के बारे में और जानकारी के साथ आप सुन सकते हैं
** 1857 के गीतों की recordings!!
** हिरावल के नाटक ' दुनिया रोज़ बदलती है' का पूरा video!!
** 'हिरावल' के कई live performances!!
** 'हिरावल' के गाये गये कई पुराने गीत...!!.
** और भी बहुत कुछ... इन्तज़ार करें...!!
Subscribe to:
Posts (Atom)